Tuesday, September 10, 2013

हिदी दिवस है, हिंदी बोलो!

हिदी दिवस है, हिंदी बोलो!

गुलाब चंद जैसल
(स्नातकोत्तर(हिंदी) अध्यापक
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हिंदी है राष्ट्र भाषाहिंदी है अभिलाषा |

एक सूत्र में बांधेगी सबकोयह सद्पुरुषों की आशा ||

हिंदी में बोलेंहिंदी विचार करें|

हिंदी में हीदैनिक व्यवहार करें ||

विश्व की तीसरी भाषाहिंदी कहलाए |

मारिससइंडोमलयपाकबंगला में बोली जाए ||
हमारी राजभाषा हिन्दी है। उत्तर भारत में हिन्दी पट्टी है जहां कई राज्यों की राजभाषा हिन्दी है। भारत के संविधान में इन राज्यों को '''' श्रेणी में रखा गया है। संवैधानिक रूप से हिन्दी को राष्ट्रभाषा नहीं, राजभाषा कहा गया है। 14 सितम्बर 1949 को हिन्दी को संघ के संविधान में राजभाषा का दर्जा दिया गया और संविधान में बाकायदा इस की व्याख्या की गई। राजभाषा के रूप में हिन्दी की विजय मात्र एक मत से ही हुई थी, ऐसा कहा जाता है। '' श्रेणी में हिमाचल, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार तथा सभी संघ शासित राज्य आते हैं। इस क्षेत्र को ही हिन्दी पट्टी कहा जाता है।
हिन्दी को संघ की भाषा तो माना किन्तु साथ-साथ अंग्रेजी के प्रयोग की भी अनुमति दी गई जिसे बार-बार बढ़ाया जाता रहा जिसके कारण अंग्रेजी का वर्चस्व बराबर बना रहा।
पहले साहित्य में एक ''हिन्दी सेवी'' जमात होती थी। बहुत से साहित्यकार या हिन्दी के अध्यापक अपने को हिन्दी सेवी कहा करते थे। हिन्दी के लिए संसद के बाहर धरना देते थे। एक प्रेमी ने तो संसद में छलांग भी लगा दी थी। अब हिन्दी लेखक अपने को हिन्दी प्रेमी नहीं कहते। अंग्रेजी स्कूलों की बहुतायत है, जहां हिन्दी प्रेमियों के बच्चों को स्कूल में हिन्दी बोलने पर केनिंग की सजा होती है।
हिन्दी के राजभाषा बनने पर हिन्दी में एम00 किए 'हिन्दी सेवियों' की भी पूछ बढ़ी। कोयला से ले कर रेल मन्त्रालय तक हिन्दी अधिकारियों के पद सर्जित हुये। बैंकों में तो अच्छे ग्रेड में हिन्दी अधिकारी लगे। ऐसा भी समय गया था कि हिन्दी-विषय केवल लड़कियां ही लेती थीं। समय बदला और प्राईवेट कोचिंग अकेडेमियों में रतन, प्रभाकर पढ़ाने वाले हिन्दी अधिकारी लगने लगे। 'हिन्दी' के साथ 'अधिकारी' शब्द लगा तो आदर सूचक था। वेतन और ग्रेड भी आकर्षक था। यहां हिन्दी सही मायनों में रोटी रोजी के साथ जुड़ी।
संसदीय राजभाषा समिति के साथ लगभग सभी मन्त्रालयों और बैंकों में 'राजभाषा समितियां' बनीं। ये समितियां गर्मियों में पहाड़ों पर 'निरीक्षण' हेतु दौरे पर आने लगीं। राजनेताओं के साथ
कभी-कभी कोई लेखक या कवि भी इस का सदस्य बनने का सौभाग्य पा लेता। बैंकों की ऐसी समितियों के तो ठाठ ही अलग होते हैं।
राजभाषा के उत्थान के लिए कुछ ऐसी संस्थाएं बनीं जो साल में एक बार 'अखिल भारतीय राजभाषा सेमिनार' कर के यश और धन कमाने लगीं। कुछ संस्थाएं तो आज तक चली हुई हैं और हिन्दी को पंचसितारा होटल तक ले जाने का दावा करती हैं। ये संस्थाएं निगम बोर्डो और बैंकों से उनके खर्चे पर और भारी फीस ले कर पंचसितारा होटलों में सेमिनार करवा रही हैं। केन्द्र और राज्य सरकारों से हिन्दी के नाम पर विज्ञापन और सुविधाएं अलग लेती हैं। ऐसी एक संस्था के आयोजन में जाने का अवसर मिला। आयोजन आरम्भ होने से पहले अर्धसरकारी संस्थानों, कम्पनियों के प्रतिनिधि सपत्नीक होटल के कमरों से 'डेलीगेट' का बैच लगाए उतर रहे थे और नीचे आते ही रिशेप्शन पर टूरिस्ट प्वांइंटों की जानकारी ले रहे थे।
किसी भी भाषा को राजभाषा बनाना सरकार की इच्छा शक्ति पर निर्भर करता है। मुगल काल में उर्दू-फारसी का चलन सरकार ने किया। आज भी गांव देहात के अनपढ़ बुजुर्ग सत्तर प्रतिशत उर्दू के शब्दों का प्रयोग जाने अनजाने में करते हैं। इसी तरह ब्रिटिश शासन ने अंग्रेजी को थोपा। आज भी ठेठ ग्रामीण महिलाएं कहती हैं, “आज मेरा मूड ठीक नहीं है या मैं बोर हो रही हूं।''
हिमाचल प्रदेश में ''हिमाचल प्रदेश अधिनियम,1975'' पारित हुआ जिसके अनुसार प्रदेश की राजभाषा नागरी लिपि में हिन्दी घोषित की गई।
इसी तरह की इच्छाशक्ति का परिचय दिया था हिमाचल प्रदेश के तत्कालीन मुख्य मन्त्री शान्ताकुमार ने। उन्होंने सरकार से आदेश करवा दिये कि 26 जनवरी 1978 से सरकार का सारा कामकाज हिन्दी में होगा। इस आश्य की अधिसूचना 12 दिसम्बर 1977 का जारी की गई जिसमें मेडिकल कॉलेज, विधि विभाग और तकनीकी विभाग के अधीन औद्योगिक प्रशिक्षण को छोड़ कर सारा कामकाज हिन्दी में करने के आदेश थे। इस पर बहुत हाय-तौबा मची, हिन्दी टंकण यन्त्र होने, हिन्दी स्टेनो-टाईपिस्ट होने जैसे कई बहाने भी लगाए गये। किन्तु सरकार की इच्छा शक्ति थी तो हिन्दीकरण लागू हुआ। उस समय इसे हिन्दी में ''स्विच ओवर'' कहा गया था। उस समय जो मुख्य सचिव थे, वे हिन्दी में हस्ताक्षर तक नहीं कर सकते थे। सब वाधाओं के बाबजूद भी 'स्विच ओवर' हुआ। हिन्दी टंकण, आशुलिपि का प्रशिक्षण सरकारी स्तर पर दिया गया। अग्रेजी टंकण मशीनों की खरीद, अंग्रेजी टाईपिस्टों, आशुलिपिकों की नियुक्ति पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाया गया। जहां मुख्य मन्त्री जाते, रातों-रात सड़कों के मील पत्थर, सर्किट हाउसों के कमरे 'कक्षों' में बदल जाते। कोई भी अधिकारी मुख्य-मन्त्री को अंग्रेजी में फाईल प्रस्तुत नहीं कर सकता था। ऐसे में कई तरह के मजाक भी बने कि यदि कुछ अनुमोदित करवाना है तो हिन्दी में नोटिंग लिखो, सचिवों को हिन्दी पढ़नी आती नहीं, जो मर्जी हिन्दी में लिख डालो, अनुमोदित हो जाएगा।
हिन्दी लागू होने पर जिला भाषा अधिकारियों के भाव बढ़ गए थे। अंग्रेजी शब्दों के पर्याय जाने के लिए भाषा अधिकारी ही मूल स्रोत थे। एक बार जनजातीय जिले लाहुल स्पिति कु मुख्यालय केलंग में एस.डी.एम. के पास जाना हुआ तो एक अधिकारी एक परिपत्र हाथ में लिए आए जिसमें लिखा था, इस विषय में 'अधोहस्ताक्षरी' से बात करें। वे परेशान थे। कहने लगे, 'यह अधोहस्ताक्षरी पता नहीं कौन है। मैं डी.सी., .डी.एम. सबसे मिल आया, अब आप से मिलने आया हूं।'' आप अब अधोवस्त्र पहन कर अधोहस्ताक्षरी से मिलिए नहीं तो अधोगति को प्राप्त हो जाएंगे... एस.डी.एम. ने मजाक किया। ऐसे ही कुछ मजाक रेल को लोहपथगामिनी कह, आरम्भ में किए गए।
इसके बाद कई उतार चढ़ाव आते रहे। कभी हिन्दी का प्रयोग बढ़ा, कभी घटा। हिन्दीकरण का मुख्य उद्देश्य जनता का काम जनता की भाषा में होने से है। प्रशासन की भाषा एक अलग तरह की भाषा होती है जो सीधे सीधे अपने विषय पर बात करती है। उसमें साहित्यिक या क्लिष्ट भाषा की अपेक्षा नहीं रहती। अत: सरकार में सरल और सम्प्रेष्णीय भाषा पर बल देने की आवयश्कता रहती है। सरल भाषा को प्राय: अनुवाद की भाषा कठिन बनाती है। अनुवाद की भाषा हमेशा क्लिष्ट रहती है। इसीलिए कानूनी नियमों, अधिनियमों की हिन्दी समझ में नहीं आती। जनता से बात करने के लिए सरल सुबोध जनता की भाषा प्रयोग में लानी चाहिए। एक बार हिन्दी दिवस पर मुख्य अतिथि को भाषण का मसौदा भेजा गया। अपनी व्यस्तता के कारण वे भाषण पहले पढ़ नहीं पाएं। कार्यक्रम के दौरान ही उन्होंने भाषण पर नजर डाली तो उसमें ऐसे-ऐसे शब्द लिखे थे जिनको पढ़ना और उच्चारण करना बहुत कठिन था। वे विभागाध्यक्ष पर बहुत गुस्साए और फुसफसाए कि यह क्या लिखा है, कौन पढ़ेगा इसे। यह तो अंग्रेजी से भी कठिन है। खैर उन्होने खुद से भाषण दिया जो बहुत सटीक और संदेश देने वाला था। अंत में उन्होंने कहा, ''विभाग वालों ने भी मुझे बड़ी मेहनत से कुछ लिख कर दिया है इसे मैं पढ़ते हुए ज्यों का त्यों प्रैस को देता हूं।''
मैंने स्वयं तीस वर्ष तक 'हिदी-हिन्दी' का खेल खेला है। बार बार हिन्दी की बैठकें आने पर एक पुस्तिका तैयार की गई थी जिसमें हिन्दी में जो जो हुआ उस का इतिहास क्रमबध्द तरीके से लिखा गया। महापुरूषों की कुछ उक्तियां भी डाली गईं। यह पुस्तिका हर बैठक में और हर कार्यक्रम में एक कुंजी की तरह काम आती थी। वैसे ही कार्यालयों में जो एक बार भाषण तैयार किया जाता है, अगले वर्ष उसी को फायल से निकाल कर सन् बदल आगे कर दिया जाता है। जब किसी 'अंग्रेजी नोईंग' सचिव के पास हिन्दी में नोट ले जाओ तो वह कहता, ''यह क्या लिख दिया यार, अंग्रेजी में लिखा करो ताकि कुछ समझ में भी आए। अब कौन पढ़ेगा इसे, तुम्हीं पढ़ कर सुनाओ... अच्छा लाओ, कुछ उलटा सीधा तो नहीं लिखा है न। कहां साईन करना है? ''इतना विश्वास तो रहता ही था अधिकारियों पर कि चाहे हिन्दी में लिखा है पर ठीक ही लिखा होगा।
भारत सरकार के स्तर पर यूं तो कई शब्दावलियां निकाली गईं हैं। राजभाषा आयोग, विधि आयोग,वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग आदि द्वारा शब्दकोष पर शब्दकोष निकाले गए हैं किन्तु पूरे देश में शब्दों का मानकीकरण अभी नहीं हुआ। ''राज्य'' को मध्यप्रदेश में ''शासन'' कहा जाता है। 'लोक निर्माण विभाग'' को कहीं ''सार्वजनिक निर्माण विभाग'' कहा जाता है; फ़ाइल को कहीं मिसिल, कहीं नस्ति कहा जाता है। सिविल अस्पताल को कहीं असैनिक, कहीं नागरिक अस्पताल लिखा जाता है। यानि यह शब्दावली राज्य दर राज्य तो भिन्न है ही, एक प्रदेश में भी कई रूपांतर प्रचलित हैं। सर्किट हाउस को कहीं विश्राम गृह, कहीं परिधि गृह लिखा जाता है।
हिन्दी के प्रचार के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि उर्दू-फारसी, अंग्रेजी तथा स्थानीय भाषाओं के शब्दों को ज्यों का त्यों अपना लिया जाए और सरल से सरल आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया जाए। कुरता, पाजामा दरवाजा, खिड़की, कलम, दवात, स्कूल, अस्पताल, इंस्पेक्टर, बोर्ड, वारंट, डिग्री आदि ऐसे शब्द हैं जो आज एक ग्रामीण भी बोलता और समझता है। प्रचलन प्रयोग से फैलता है। आरम्भ में सचिवालय, मन्त्रालय, अभियन्ता, टंकक, अनुभाग, प्रशासन, आबंटन, अधीक्षक, निरीक्षक, सर्वेक्षक, परिचर, नियन्त्रक आदि शब्द अजीब लगते थे। आज इन्हें सभी प्रयोग करते हैं।
एक बार आरम्भ में एक संस्कृत महाविद्यालय में संस्कृत दिवस मनाने गए तो वहां कोई नहीं जानता था कि संस्कृत दिवस भी कोई दिवस होता है। अब तो आलम यह है कि हर दिन कोई कोई दिवस है। कभी बाल दिवस है, कभी वृध्द दिवस; कभी दिल दिवस है तो कभी आंख दिवस; कभी सास दिवस है तो कभी बहु दिवस। यह दिवस अब विश्व स्तर पर मनाए जाते हैं। तो हिन्दी दिवस मनाने में क्या हर्ज़ है। कम से कम हिन्दी वालों को तो यह दिवस जोश से मनाना चाहिए। भाषा का विकास व्यवसाय से जुड़ा है। हिन्दी यदि रोटी भी देने लगी है तो इसे धूम से मनाईए।


भाषा और देश
---गुलाब चंद जैसल (एम. ., बी. एड., नेट)



जिस दिन लार्ड मैकाले का सपना पूरा और गांधी जी का सपना ध्वस्त हो जाएगा, उस दिन देश पूरे तौर पर केवल 'इंडिया' रह जाएगा। हो सकता है, समय ज़्यादा लग जाए, लेकिन अगर भारतवर्ष को एक स्वाधीन राष्ट्र बनना है, तो इन दो सपनों के बीच कभी न कभी टक्कर होना निश्चित है। जो देश भाषा में गुलाम हो, वह किसी बात में स्वाधीन नहीं होता और उसका चरित्र औपनिवेशिक बन जाता है। यह एक पारदर्शी कसौटी है कि चाहे वे किसी भी समुदाय के लोग हों, जिन्हें हिंदी को राष्ट्रभाषा मानने में आपत्ति है, वह भारतवर्ष को फिर से विभाजन के कगार तक ज़रूर पहुँचाएँगे। लार्ड मैकाले का मानना था कि जब तक संस्कृति और भाषा के स्तर पर गुलाम नहीं बनाया जाएगा, भारतवर्ष को हमेशा के लिए या पूरी तरह, गुलाम बनाना संभव नहीं होगा। लार्ड मैकाले की सोच थी कि हिंदुस्तानियों को अँग्रेज़ी भाषा के माध्यम से ही सही और व्यापक अर्थों में गुलाम बनाया जा सकता है। अंग्रेज़ी जानने वालों को नौकरी में प्रोत्साहन देने की लार्ड मैकाले की पहल के परिणामस्वरूप काँग्रेसियों के बीच में अंग्रेज़ी परस्त काँग्रेसी नेता पं. जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में एकजुट हो गए कि अंग्रेज़ी को शासन की भाषा से हटाना नहीं है अन्यथा वर्चस्व जाता रहेगा और देश को अंग्रेज़ी की ही शैली में शासित करने की योजनाएँ भी सफल नहीं हो पाएँगी। यह ऐसे अंग्रेज़ीपरस्त काँग्रेसी नेताओं का ही काला कारनामा था कि अंग्रेज़ी को जितना बढ़ावा परतंत्रता के 200 वर्षों में मिल पाया था, उससे कई गुना अधिक महत्व तथाकथित स्वाधीनता के केवल 50 वर्षों में मिल गया और आज भी निरंतर जारी है। जबकि गांधी जी का सपना था कि अगर भारतवर्ष भाषा में एक नहीं हो सका, तो ब्रिटिश शासन के विरुद्ध स्वाधीनता संग्राम को आगे नहीं बढ़ाया जा सकेगा। भारत की प्रादेशिक भाषाओं के प्रति गांधी जी का रुख उदासीनता का नहीं था। वह स्वयं गुजराती भाषी थे, किसी अंग्रेज़ीपरस्त काँग्रेसी से अंग्रेज़ी भाषा के ज्ञान में उन्नीस नहीं थे, लेकिन अंग्रेज़ों के विरुद्ध स्वाधीनता संग्राम छेड़ने के बाद अपने अनुभवों से यह ज्ञान प्राप्त किया कि अगर ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध स्वाधीनता संग्राम को पूरे देश में एक साथ आगे बढ़ाया जा सकता है, तो केवल हिंदी भाषा में, क्यों कि हिंदी कई शताब्दियों से भारत की संपर्क भाषा चली आ रही थी। भाषा के सवाल को लेकर लार्ड मैकाले भी स्वप्नदर्शी थे, लेकिन उद्देश्य था, अंग्रेज़ी भाषा के माध्यम से गुलाम बनाना। गांधी जी स्वप्नदृष्टा थे स्वाधीनता के और इसीलिए उन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित कर दिया। स्वाधीनता संग्राम में सारे देश के नागरिकों को एक साथ आंदोलित कर दिखाने का काम गांधी जी ने भाषा के माध्यम से ही पूरा किया और अहिंसा के सिद्धांत से ब्रिटिश शासन के पाँव उखाड़ दिए।  पूरे विश्व में एक भी ऐसा राष्ट्र नहीं है, जहाँ विदेशी भाषा को शासन की भाषा बताया गया हो, सिवाय भारतवर्ष के। हज़ारों वर्षों की सांस्कृतिक भाषिक परंपरावाला भारतवर्ष आज भी भाषा में गुलाम है और आगे इससे भी बड़े पैमाने पर गुलाम बनना है। यह कोई सामान्य परिदृष्टि नहीं है। अंग्रेज़ी का सबसे अधिक वर्चस्व देश के हिंदी भाषी प्रदेशों में है। भाषा में गुलामी के कारण पूरे देश में कोई राष्ट्रीय तेजस्विता नहीं है और देश के सारे चिंतक और विचारक विदेशी भाषा में शासन के प्रति मौन है। यह कितनी बड़ी विडंबना है कि भारतवर्ष की राष्ट्रभाषा के सवालों को जैसे एक गहरे कोहरे में ढँक दिया गया है और हिंदी के लगभग सारे मूर्धन्य विद्वान और विचारक सन्नाटा बढ़ाने में लगे हुए हैं। राष्ट्रभाषा के सवाल पर राष्ट्रव्यापी बहस के कपाट जैसे सदा-सदा के लिए बंद कर दिए हैं। कहीं से भी कोई आशा की किरण फूटती दिखाई नहीं पड़ती। सारी प्रादेशिक भाषाएँ भी अपने-अपने क्षेत्रों में बहुत तेज़ी से पिछड़ती जा रही हैं। अंग्रेज़ी के लिए शासन की भाषा के मामले में अंतर्विरोध भी तभी पूरी तरह उजागर होंगे, जब यह प्रादेशिक भाषाओं की संस्कृतियों के लिए भी ख़तरनाक सिद्ध होंगी। प्रादेशिक भाषाओं की भी वास्तविक शत्रु अंग्रेज़ी ही है, लेकिन देश के अंग्रेज़ीपरस्तों ने कुछ ऐसा वातावरण निर्मित करने में सफलता प्राप्त कर ली है जैसे भारतवर्ष की समस्त प्रादेशिक भाषाओं को केवल और केवल हिंदी से ख़तरा हो। सुप्रसिद्ध विचारक हॉवेल का कहना है कि किसी भी देश और समाज के चरित्र को समझाने की कसौटी केवल एक है और वह यह कि उस देश और समाज की भाषा से सरोकार क्या है। जबकि भारतवर्ष में भाषा या भाषाओं के सवालों को निहायत फालतू करार दिया जा चुका है। लगता है भारत वर्ष की सारी राजनीतिक पार्टियाँ इस बात पर एकमत हैं कि हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं दिया जाए और देश में शासन की मुख्य भाषा केवल और केवल अंग्रेज़ी को ही रहना चाहिए। भाषा के मामले में भारतवर्ष को छोड़कर किसी भी स्वाधीन राष्ट्र का रुख ऐसा नहीं है। अगर इंग्लैंड का कोई प्रधानमंत्री अपने देशवासियों को हिंदी में संबोधित करे, तो स्थिति क्या बनेगी? भारतवर्ष भी एक स्वाधीन राष्ट्र तभी बन पाएगा जब अंग्रेज़ीपरस्त राजनेताओं से मुक्ति मिलेगी। इससे पहले विदेशी भाषा से मुक्ति पाना संभव नहीं है।

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